कहानी संग्रह >> बाजे पायलियाँ के घुँघरू बाजे पायलियाँ के घुँघरूकन्हैयालाल मिश्र
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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।
लीजिए, आदमी बनिए !
"कहो भाई आजकल क्या ठाठ हैं?"
"ठाठ? अरे भाई, ठाठ होंगे ठाठ वालों के; यहाँ तो आज टाट ही टाट है।"
'टाट ही सही, पर तम्हारा गला क्यों सख रहा है? तम तो इस तरह कह रहे हो, जैसे ठाठ तो होती है कोई बड़ी चीज़ और टाट होता है यों ही कूड़ा-कच्चर। भाई जान, टाट माने जूट और जूट हमारे देश का एक ख़ास उद्योग है। खैर, छोड़ो यह पहेली-बुझौवल और यह बताओ कि तबीयत टाइट क्यों है और लो छोड़ो तबीयत को भी सिर्फ यह बताओ कि यों टूलते-झूलते तुम आ कहाँ से रहे हो?"
"भैया, स्टेशन से आ रहा हूँ।"
“अच्छा जी, तो अब कैंची-कमीशन के मेम्बर हो गये हो तुम, पर याद रखना एक दिन सरकारी गाड़ी में बड़े घर जाओगे। यों घूर क्यों रहे हो? लो, हम अपनी बात वापस लेते हैं। यह कोई पुराना ज़माना थोड़ा ही है कि जब तलवार का घाव भर जाता था, बात का नहीं। यह नयी रोशनी है कि सॉरी कहते ही बात ख़त्म हो जाती है। लो, हमने कैंची-कमीशन की मेम्बरी से भी तुम्हें बरी कर दिया, अब तुम साफ़-साफ़ यह बताओ कि स्टेशन क्यों गये थे और वहाँ से लटके-झटके क्यों आ रहे हो?"
"दिल्ली जाने को स्टेशन गया था, पर गाडी नहीं मिली और गाडी क्या नहीं मिली, टिकिट ही नहीं मिला। बात यह हुई कि मेले के कारण भीड़ बहुत थी और क्यू बन नहीं पाया। मैं अपनी आदमीयत से मजबूर, एक तरफ़ खड़ा रहा कि क्यों धक्का-मुक्की करूँ; बस गाड़ी छुक-छुक कर गयी और मेरा नम्बर ही नहीं आया !"
“तो बाबू ने टिकिट बाँटना देरी से आरम्भ किया होगा। तुमने उसकी गरदन पर मालिश क्यों नहीं की?''
“जी, निवेदन यह है कि उसकी गरदन और मेरी भुजा के बीच में सरकार ने अक्लमन्दी से काम लेकर लोहे का एक मज़बूत अँगला लगा दिया है; वरना आपके उपदेश के अनुसार गरदन की मालिश तो होती न होती उसके पर्स की पालिश हो चुकी होती। वैसे सचाई यह है कि उस बेचारे की मालिश-पालिश का यह मौक़ा ही न था, क्योंकि जब यात्री लोग गाड़ी के छूटने का समय होने के बाद ही घर से चलने की आदत रखते हों तो उसका समय से काम करना, क्या काम दे?"
“ठीक है, तो वाबूजी बेक़सूर थे और यह ख़ुद तुम्हारा क़सूर है कि गाड़ी चलती-फिरती नज़र आयी, पर तुम खम्भे से वहीं खड़े रहे।"
“जी, तो आदमी बनने की कोशिश करना, आदमीयत से काम लेना भी अब क़सूर हो गया?"
“माफ़ कीजिए भाई साहब, आप दूसरे के बोल मेरे मुँह में रख रहे हैं। मैंने यह नहीं कहा कि आदमी बनने की कोशिश करना क़सूर है। मेरा भाव तो यह है कि इस नये युग में पुरानी आदमीयत से काम लेना क़सूर है और जाने दीजिए क़सूर की बात, उससे अब सफलता नहीं मिल सकती, जैसा कि आपको नहीं मिली। ठीक भी है; दिसम्बर-जनवरी में तीन-सेरा लिहाफ़ न ओढ़ो, तो नमूनिया निमन्त्रण की प्रतीक्षा किये बिना ही फेफड़ों की खिड़की में आ झाँकता है; पर वही लिहाफ़ मई-जून में ओढ़ा जाए तो पाँच मिनिट में स्टीम बाथ का मज़ा आ जाता है।"
"तो भले आदमी, आदमीयत भी नयी पुरानी होती है?"
“जी हाँ, ज़माना नया तो आदमीयत नयी और आदमीयत नयी तो आदमी बनने के नुसखे नये। मैं न पुराने ज़माने का तीसमारख़ाँ हूँ, न इस ज़माने का राममूर्ति, फिर भी कभी और कहीं झापड़ नहीं खाता-बताओ कभी चूकता है निशाना? किसी की बही देख लो या किसी का लेजर, हमारा नाम अच्छे आदमियों में लिखा मिलेगा और यह सब कोई चमत्कार नहीं है, जादू नहीं है, सिर्फ आदमी बनने के नये नसखों का असर है।"
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- उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
- यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
- यह किसका सिनेमा है?
- मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
- छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
- यह सड़क बोलती है !
- धूप-बत्ती : बुझी, जली !
- सहो मत, तोड़ फेंको !
- मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
- जी, वे घर में नहीं हैं !
- झेंपो मत, रस लो !
- पाप के चार हथियार !
- जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
- मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
- जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
- चिड़िया, भैंसा और बछिया
- पाँच सौ छह सौ क्या?
- बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
- छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
- शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
- गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
- जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
- उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
- रहो खाट पर सोय !
- जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
- अजी, क्या रखा है इन बातों में !
- बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
- सीता और मीरा !
- मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
- एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
- लीजिए, आदमी बनिए !
- अजी, होना-हवाना क्या है?
- अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
- दुनिया दुखों का घर है !
- बल-बहादुरी : एक चिन्तन
- पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में